शनिवार, 30 जुलाई 2011
व्यथित मन ,
व्यथित है मन ,
भटकता भावों की इन गलियन से उन गलियन
कभी लौटता उस बिंदु में
भावों की नदियों में बांध बांधता
फिर उफान मारता
अचानक हिलोरे लेता
बहा ले जाता सब कुछ
फिर वही व्यथित मन
व्यथित ही रह जाता
जैसे भवर में फंसी पोत ..ऋतु दुबे
क्यों तुम मेरे अस्तिव में छाये हुए हो
क्यों ह्रदये को भरमाये हुए हो
मेहमा बन के बादल की तरह छाये हुए हो तुम एक बार बरस के चल दोगे अपनी राह मै फिर रह जाऊगी अधूरी प्यासी सी
मै पुराने बरगद की पुरानी सखा सी
तुम नयी बहार के नए गुल हो
कल अखरेगी पुरानी शाख तुम्हे
कल फिर तुम आकर्षित होगे नए फूलो पर
क्यों तुम मेरी उपासना भंग करने पर अमादा...
क्यों ह्रदये को भरमाये हुए हो
मेहमा बन के बादल की तरह छाये हुए हो तुम एक बार बरस के चल दोगे अपनी राह मै फिर रह जाऊगी अधूरी प्यासी सी
मै पुराने बरगद की पुरानी सखा सी
तुम नयी बहार के नए गुल हो
कल अखरेगी पुरानी शाख तुम्हे
कल फिर तुम आकर्षित होगे नए फूलो पर
क्यों तुम मेरी उपासना भंग करने पर अमादा...
गुरुवार, 21 जुलाई 2011
उर्मिला
'' उर्मिला ''
जिसकी सांसे दफ़न हो गयी
राजमहल के गलियारे में
नवविवाहिता जो रही अविवाहिता
उस विरहणी सुर्यवंशानी उर्मिल की
मैं तुमको कथा सुनती हूँ ...................
बिना खता के व्यथा सहती
सुख गए आखो के नीर
उड़ गयी चेहरे की लाली
न जी पाई इन चौदह वर्षो में
न मर पाई इन चौदह वर्षो में
उस की व्यथा सुनती हूँ ............
चढ़ी मर्यादाओ के भेढ़ वो
न तोड़ सकी सांसारिक बंधन
न निभा पाई सबकी दृष्टि में पति धर्म
न बहा पाई प्रेम रस की धारा
बंजर ह्रदय न कोई अंकुर
न कोई रस धारा
बूत सी फिरती इधर उधर गलियारों मे
मे उस की कथा ...............................
इतिहास मे दफ़न हो गयी जिसकी यादे
हर आहट पर उठती वो चौक
तरसती रहती जिसकी अखिंया हरि दर्शन को
तन मे आग लगा जाता ठंडी हवा का झोका
पूछो न ह्रदय की अन्नंत व्यथा
उस की कथा .....................................
तुलसी भूले ,भूले बाल्मिकी
उस के सयम की कथा
राम सीता लक्ष्मण सब बोले
उर्मिला से न दूर का नाता
उस उर्मिल की ................................
( इरा पांडेय )ऋतु दुबे २१ /७ /११
जिसकी सांसे दफ़न हो गयी
राजमहल के गलियारे में
नवविवाहिता जो रही अविवाहिता
उस विरहणी सुर्यवंशानी उर्मिल की
मैं तुमको कथा सुनती हूँ ...................
बिना खता के व्यथा सहती
सुख गए आखो के नीर
उड़ गयी चेहरे की लाली
न जी पाई इन चौदह वर्षो में
न मर पाई इन चौदह वर्षो में
उस की व्यथा सुनती हूँ ............
चढ़ी मर्यादाओ के भेढ़ वो
न तोड़ सकी सांसारिक बंधन
न निभा पाई सबकी दृष्टि में पति धर्म
न बहा पाई प्रेम रस की धारा
बंजर ह्रदय न कोई अंकुर
न कोई रस धारा
बूत सी फिरती इधर उधर गलियारों मे
मे उस की कथा ...............................
इतिहास मे दफ़न हो गयी जिसकी यादे
हर आहट पर उठती वो चौक
तरसती रहती जिसकी अखिंया हरि दर्शन को
तन मे आग लगा जाता ठंडी हवा का झोका
पूछो न ह्रदय की अन्नंत व्यथा
उस की कथा .....................................
तुलसी भूले ,भूले बाल्मिकी
उस के सयम की कथा
राम सीता लक्ष्मण सब बोले
उर्मिला से न दूर का नाता
उस उर्मिल की ................................
( इरा पांडेय )ऋतु दुबे २१ /७ /११
शुक्रवार, 1 जुलाई 2011
'विधवा '
ये कविता उन नवविवाहिता विधवा के लिए समर्पित है जी के पति नक्लासियो द्वारा बारूद से शहीद हुवे
वो दूर खड़ी कुछ सोच रही
काया कृष नयनो मैं न उम्मीदी के दीप लिए
वो लिपटी सुहाग प्रतिको से सामने उस के चिरनिद्र मैं सोयी जिन्दगी
वो नवविवाहिता विधवा वैधव लिए
वो प्रेम की हो गयी सुखी नदी सी
कामदेव की ज्वाला मे जल कुंदन सी
वो रिश्तो मे कैद बाँध मे बढ़ी सरिता सी
पत्थर सा जीवन खुद के लिए उस का
मेहंदी न छूटी हाथो की
खुशिया न महकी प्रिय के सांसो की
न तैर पाई प्रिय प्रेम पगी नदी मे न आंकठ डूब पाई प्रेम कुंद मे जल रही अग्नी कुड मे निरंतर
प्रिय की चिता निहारती सुनी आँखों से अलपक
आशावो का अंकुर पल रहा कोख मे फेरती स्नेहिल हाथ उस पर निरंतर
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