शनिवार, 25 जून 2011
शुक्रवार, 10 जून 2011
बिखरी बिखरी सी जिंदगी
फिर से कैसे सवारू
किसी कोने है उलझी रिश्तो की डोर पड़ी है
किसी कोने में ये मन घायल पड़ा
बिधा बिधा से भाव है
ह्रदय में अपनों के दिए घाव
इसी सिरे को पकडती जिन्दगी का
वो सिरा उलझता जाता
हर लमहा बोझील
हर रिश्ता एक नासूर
खुद की परछाई से दर
सिमट जाती हु ,
जितना सुलझाती हु उतनी बिखर जाती हु . इरा ऋतु दुबे ,१०/०६/11
फिर से कैसे सवारू
किसी कोने है उलझी रिश्तो की डोर पड़ी है
किसी कोने में ये मन घायल पड़ा
बिधा बिधा से भाव है
ह्रदय में अपनों के दिए घाव
इसी सिरे को पकडती जिन्दगी का
वो सिरा उलझता जाता
हर लमहा बोझील
हर रिश्ता एक नासूर
खुद की परछाई से दर
सिमट जाती हु ,
जितना सुलझाती हु उतनी बिखर जाती हु . इरा ऋतु दुबे ,१०/०६/11
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