सोमवार, 9 जुलाई 2012

विचारो के सागर में गोता लगा रही थी 
एक एक मोती चिंता के चुन रही थी 
न छोर न किनारा था 
मंजिल का न पता न ठिकाना था 
लहरों के थपेड़े ,थे अनजानी डगर थी 
समय पर की गयी गलतियों का 
चल रहा मेरे संग करवा था .ऋतु
रात भर मै चाँद को निहारती रही 
तारो को देखा इतराती रही 
चाँद भी मेरी इस मासूमियत पर 
रीझ गया ,शरमा के बदलो के पीछे छिप गया 
में उसे दिल की बात बताती रही 
वो मंद मंद मुस्कुराता रहा 
जो बयाँ न कर सकती अब तक 
मै प्रीतम के सामने 
दिल खोल के उसे दिखाती रही 
..............रात भर ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,ऋतु