रविवार, 29 अप्रैल 2012

समय का पंछी पंख फैला के उड़ गया देखते देखते 
उम्र का दरिया अपनी द्रुत  गति से ले आया सागर तीरे .
पकड़ सके न ,रोका सके हम कर प्रयास भरी 
आ गया ठहरावो उम्र का ,पड़ गए हम खुद पर अकेले भरी 
न रिश्तो  की  डोर है खिचे न बच्चो का प्यार है सीचे 
हम ही हम है ये तन्हाई बड़ी बेरहम है .ऋतु
जिन्दगी के हर पलो को सालो में जीती हु में 
नयी सुबह की नयी रागिनी के धुन में 
खुद को मोतियों सा फिरोती हु में 
खुशियों के ताजे झोको को महसूस करती 
दर्द को अन्दर ही अन्दर पीती हु में 
अब ये दर्द भी डर सा गया है मुझे से 
खुशियों की आहट फिर सुनती हु में .ऋतु