मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

मेरा क्या तेरा

जग में क्या मेरा क्या तेरा है
सब कुछ यही का ही यही रह जाना है
मन को रख साफ़ तू दिल में न रख मलाल तू
तेरा गुण तेरा अलंकार है
पहने क्यू तू नित्य नए आभूषण है
क्या सोना क्या चांदी मिटटी में सब मिल जाना है
हर पल खुशियों से जी ले तू बाकि यही रह जाना है
--------------------------जग में क्या मेरा .........



  1.                                                 परछाईयो को भी हम ने डर से साथ छोड़ते देखा है
                                                     मिटटी की गात को खाक होते देखा है
                                                     समय पराजीत नहीं होता है
                                                     हम ने लोगो को समाये से पहले जाते देखा है                                                  क्या मेरा क्या तेरा हम ने सब यही छुट जाते देखा है .
                                                          --------------------------------------------------
                                                         ----------------ऋतु दुबे -------------------------







                                                       

                                                                         
                                                                           

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

लक्ष्य बिहीन पथ पर था में अग्रसर
मुठी भर सपने लिए नीद को तलाशता
न चांदनी रात का इंतजार था
न भोर के सूरज से कोई सरोकार था
सपनों को धरा में रख पेट भरने
खोद रहा मिटटी और पत्थर
............................लक्ष्य विहीन ,,,,,
......................................
................................ऋतु दुबे

रविवार, 16 सितंबर 2012

मौसम बदलता है प्यार नहीं

मिलने से पहले बिछुड़ने का मौसम आता है 
बहार से पहले पतझर का मौसम आता है 
जुदा होते है जर्द पत्ते जब शाख से 
नयी आशावो के नए कोपल आते है 
जो दामन छुड़ा लोगे तुम हम से 
मेरे कल्पना के नए राग छेड़ दोगे तुम 
लेकिन साज तुम ही होगे 
पत्ते वृक्ष बदला नहीं करते . ऋतु (इरा )

रविवार, 9 सितंबर 2012

तेरा साथ हो तो

तेरा साथ हो तो काँटों में चलाना आता है मुझे 
पथ में पत्थर बिखरे तो तो फूल बनाना आता है मुझे 
तपिस आदित्य की हो तो चांदनी रात बनाना आता है मुझे 
तेरा साथ हो तो .................................................
........................................................................
नदियों को बहवो के बिपरीत बहाना आता है मुझे 
समुन्दर की लहरों को हाथो में ले खेलना आता है मुझे 
असमान से चाँद को जमी में लाना आता है मुझे 
एक तेरा साथ हो तो .........................................
......................................................................
पत्थर से पानी निकलना आता है मुझे 
तेरे लिए सिर्फ तेरे लिए देवो को जमी पर उतरना आता है मुझे 
केक्टस में भी फूल खिलाना आता है मुझे !!
तेरा साथ हो तो ....................................
.......................................................ऋतु दुबे

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

चारो ओर जब खामोशिय हो 
सिसकियो का सिलसिला हो 
न बहते हो आसू 
फिर भी नयन रोते हो 
दिल में कसक हो 
यादो में न चाहते हुवे भी तुम हो 
चाँद की चंदिनी भी 
शोलो सी तपिस दे 
तारो की छाया भी 
दर्द का कसकना दे 

शीतल हवा के झोके भी
लू सी लगे
प्यार की झील
मृग त्रिशना सी
दिल को बहलाए
नादा दिल ये
कैसे इन सब से भरमाये
तेरी ही तेरी याद दिलाये ......
,,,,,,,,,,,,चारो ओर जब ...................ऋतु

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

धीरे -धीरे ये वक़्त गुजरता जायेगा 
तेरी मधुर स्मृतियाँ मेरे मानस पटल से 
भोर के चाँद के मालिंद धुधली होती जाएगी 
समय का रवि ले लेगा अपने आगोश में उसे 
जिन्दगी की इस आपाधापी में 
तू इतिहास का एक पन्ना सा हो जायेगा 
मत कर इतनी रुशबयिया 
वरना तू भी मेरे जीवन का 
एक बोझिल शाम सा हो जायेगा .ऋतु दुबे १७/०७/12

सोमवार, 9 जुलाई 2012

विचारो के सागर में गोता लगा रही थी 
एक एक मोती चिंता के चुन रही थी 
न छोर न किनारा था 
मंजिल का न पता न ठिकाना था 
लहरों के थपेड़े ,थे अनजानी डगर थी 
समय पर की गयी गलतियों का 
चल रहा मेरे संग करवा था .ऋतु
रात भर मै चाँद को निहारती रही 
तारो को देखा इतराती रही 
चाँद भी मेरी इस मासूमियत पर 
रीझ गया ,शरमा के बदलो के पीछे छिप गया 
में उसे दिल की बात बताती रही 
वो मंद मंद मुस्कुराता रहा 
जो बयाँ न कर सकती अब तक 
मै प्रीतम के सामने 
दिल खोल के उसे दिखाती रही 
..............रात भर ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,ऋतु

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

Drritu Dubey
ऐ री सखी वो कब आयेगे 
दादुर सम्मलित स्वर में कब गायेगे 
कब चातक की प्यासा बुझेगी
कब पपीहे खुशियों के गीत गायेगा 
...................................... ऐ रे सखी 


फिर पनघट में होगी रौनक कब 
छल छल करेगी सरिता फिर कब 
मस्त पवन के झोके में मेहदी की खुशूब कब आएगी 
वीर बहूटी हरी घासों में कब छाएगी 
..........................................ऐ री सखी


उपवन मधुबन कब बन जायेगे 
झिगुर रातो में कब गायेगे 
कब चमेली की खुशूब से भरेगा मेरा आँगन 
सावन के झूलो में बहार कब आएगी 
...................................आर री सखी 


झरनों में यौवन कब छ्येगा 
प्रीत के दिन फिर कब आयेगे 
गोरी के गालो में अम्बर की लाली कब छाएगी 
अब के बरस सावन तू कब आएगा 
............................................ ऐ री सखी .
                                              ऋतु दुबे ०७ .०७.२०१२

रविवार, 29 अप्रैल 2012

समय का पंछी पंख फैला के उड़ गया देखते देखते 
उम्र का दरिया अपनी द्रुत  गति से ले आया सागर तीरे .
पकड़ सके न ,रोका सके हम कर प्रयास भरी 
आ गया ठहरावो उम्र का ,पड़ गए हम खुद पर अकेले भरी 
न रिश्तो  की  डोर है खिचे न बच्चो का प्यार है सीचे 
हम ही हम है ये तन्हाई बड़ी बेरहम है .ऋतु
जिन्दगी के हर पलो को सालो में जीती हु में 
नयी सुबह की नयी रागिनी के धुन में 
खुद को मोतियों सा फिरोती हु में 
खुशियों के ताजे झोको को महसूस करती 
दर्द को अन्दर ही अन्दर पीती हु में 
अब ये दर्द भी डर सा गया है मुझे से 
खुशियों की आहट फिर सुनती हु में .ऋतु

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

जिन्दगी की के रंगीन पेज ही क्यू अच्छे लगते है 
गम न हो तो क्या ख़ुशी के मायने तुम को समझते है 
हर मौसम का मजा अपना है 
न हो बारिश तो क्या हर वक़्त की बहार अच्छी है 
जो न तपता ये सूरज तो क्या खिलखिलाता ये गुलमोहर 
न ढलता ये सूरज तो टिमटिमाते क्या तारे 
क्या चाँद की सुन्दरता न रहा जाती छिपी 
न बहती नदिया प्यासा न रहा जाता समुद्र 
फिर ऋतु क्यू घबराती है तेरा ही परिवर्तन है 
जीवन की डगर में कभी धूप कभी छांव है .ऋतु

शनिवार, 31 मार्च 2012


नयनो को भाषा जान कर
क्यू रोते  है ये नयना
क्यू उमड़ पड़ती  है
अश्रु की धारा
कभी ख़ुशी कभी गम में
 अनजाने सफ़र में
बह जाती है
थोड़ी दुःख से गरम
जो में दुख छुपाने पी जाती
गरल बन बहाने लगाती
मेरे लहू में
में उस का पान कर
लाती मधुर मुस्कान लबो में
फिर जीती
उन अश्रुवो को पीती
कोसती क्यू बहते है
ये नादान?
क्या मेरे पास ही झिलमिलाता
अश्रुवो का सागर है ?
या में ही मोहित हु इन पर
या ये है मुझे पर ही मेहरबान
सोचती कभी क्यू मेहमा  बन
बसते है मेरे ही नयनो में
बसते ही है तो
क्यू
वक्त बे वक्त बह कर
देते बता सब को मेरा राज.ऋतु

मंगलवार, 20 मार्च 2012



छोटी सी चिड़िया मेरे दिल सी 
हमेश चहकती रहती है किसी की ख़ुशी के लिए 
खुद को भूली रहती दिन भर की भाग दौड़ में 
मासूम सी उड़ती इस दरवाजे से उस खिड़की तक 
कोई तो खिड़की खुली होगी उस के घरोंदा बनाने के लिए 
मेहनत से दाना चुगती छोटी बगिया में रौनक  करती
 मुझे सी प्यारी सी मेहनती गौरया .ritu

सोमवार, 12 मार्च 2012

चाँद

न जाने क्यू चाँद मुझे 
अपनी बांहों में घिरा सा 
लगता है 
उस का दाग 
मुझे अपना सा लगता है 
कभी श्वेत चादनी 
की चुनर ओदा 
मुझे चान्दी की पालकी में बिठा 
ले जाता है तारो के पास 
कभी कलि अमावस्या 
की रात में करता मुझे मिलाने
से इंकार
कभी हलकी धूप का फायदा उठा
दिन में भी करा
नैनो ही नैनो से भरता
खुमार
में उस के प्यार में सिक्त
चादनी की चुनर
ओटे उस की और खिची
चली जाती हु
न जाने-----
 चाँद ------------------

ऋतु दुबे

शनिवार, 10 मार्च 2012

सितारा


सितारा

  अक्सर जब में और  मेरी तन्हाई
  साथ होते है
 खुले आँगन  के नीचे
  तुम्हारी साये में बैठ
   तुम्हारी ही बाते करते है
  तुम असमान से मुझे
  बाँहे फैलाये मुझे पुकारते हो
  में जमीन में खडी
  अल्पक तुम्हारी  ओर
  बेबसी से निहारती रहती हु
  और  सोचती हु क्या
  एक असमान  में रहने वाला
  कभी
  जमीं पर उतर सकता है
  या जमीन की ये
  काया असमान
  के उस सितारे
  की बांहों  में
 खो सकती है
                --------- अक्सर जब में
----------------------------ऋतु  दुबे

गुरुवार, 1 मार्च 2012

                    मेरा आईना भी मुझे से खौफ जादा है
                       मेरी ही आखो में न जाने क्यू पर्दा पड़ा है
                    जो हकीकत न स्वीकार कर खुद की तारीफ करता है
                        खुद को देख तारीफ के पुल बंधता है
                        उस के आँखों में खुद के सपने देखता है क्यू .ritu



                                           
                                  

क्षणिकाए

            बसती पुरवाई से धरा का दिल भी डोला है
             चुपके से उस ने अपने गगन के कानो में कुछ बोला है
             शर्म से लाल हो उठा गगन भी धरा ने घुघट उपवनो में जो खोला है
              सरक दी है पीली चुनर अपनी सूरज ने भी अपनी बहे खोला है .ऋतु दुबे २७.०२.12
                                                    क्षणिकाय
                                
                                                    नादाँ दिल ये समझने के लिए तैयार ही नहीं
                                                 की उस का दिल भी नादा है किसी और को चाहत होगा
                                                   तुझे से गीत बनता है किसी के लिए
                                                वो भी तो चुप चुप के आहे भरता होगा किसी के लिए
                         तू जो तडफता है उस के लिय वो भी दिन रात तडफता होगा किसी के लिए
                         तू ही नादानी न कर मेरे दिल छोड़ दे उसे किसी और के लिए .नादाँ ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
                                                                                                                          ऋतु दुबे

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012


निर्विकार भावों से आन्माने थके थके वृक्ष है खड़े खड़े हुए
 

पत्ता पत्ता उड़ गया बसंत की बयार से

बिछड़ रहा पत्ता पत्ता डाली है खली खली
नयी कोपलो की बाट जोहते खड़े हुए
जीवन चक्र भी नियति का ऐसा ही चल रहा
रोनके है बागो में चटकती कलियों से
गुंजाये मन है भ्रमर भी पंखा पसरती तितलियाँ
आम्र भी गमक उठे बौराए हुए है झूमते
सुदुर वनों से आती है हवाये महुवे की मादकता भरी हुयी
टेसू , पलाश ,अमलताश हो रहे उतावले
खिलने को है ये बेक़रार
एक झोका बसंत बयार का मुझे अन्दर तक सहला गया
क्या में भी इसी नियति का हिस्सा हूँ
क्या मेरा भी शारीर मेरी आत्मा से बिछड़ कर
उड़ कर कही दूर चला जायेगा मिटटी की ये गात मिटटी में मिल जाएगी ---------------------------------निर्विकार --------- ( ऋतु दुबे )इरा पाण्डेय

रविवार, 29 जनवरी 2012

जहा तक हो सके

जहा तक हो सके तुम मुझे समझ लेना
एक किताब सा मुझे पढ़ लेना
पर किताब सा अलमारी के कोने में न रखना
मेरे आँखों में उभरते है भावों
मेरे हर भावों में भरा है तेरे लिए प्यार
उन भावों को तुम समझे लेना
फिर न कहना नहीं करती हो तुम इज़हार .ऋतु

लो बसंत आया

फिर झड़ने लगे वृक्षों के पत्ते

प्रकृति मे जगा फिर कोमल अहसास

कोपल कपोलो से करती

वो मुस्कुरा कर बसंत का अभिनंदन

खिल उठे चाहू दिशा सरसों के फूल

चली शीतल बयार मतवाली

कोयल कुहुकने लगी डाली डाली

बौरा गए आम भी होकर मद मस्त

नदियों का प्रवाह हुआ मध्यम

गोरी के ह्रदय में गूजे गीत थम थम

गेहू की बालिया भी हवा में इठलाकर करती खुशियों का इज़हार

चटकी नवकालिया चहु और आया फिर देख मधु मास (बसंत ऋतु )