निर्विकार भावों से आन्माने थके थके वृक्ष है खड़े खड़े हुए
पत्ता पत्ता उड़ गया बसंत की बयार से
बिछड़ रहा पत्ता पत्ता डाली है खली खली
नयी कोपलो की बाट जोहते खड़े हुए
जीवन चक्र भी नियति का ऐसा ही चल रहा
रोनके है बागो में चटकती कलियों से
गुंजाये मन है भ्रमर भी पंखा पसरती तितलियाँ
आम्र भी गमक उठे बौराए हुए है झूमते
सुदुर वनों से आती है हवाये महुवे की मादकता भरी हुयी
टेसू , पलाश ,अमलताश हो रहे उतावले
खिलने को है ये बेक़रार
एक झोका बसंत बयार का मुझे अन्दर तक सहला गया
क्या में भी इसी नियति का हिस्सा हूँ
क्या मेरा भी शारीर मेरी आत्मा से बिछड़ कर
उड़ कर कही दूर चला जायेगा मिटटी की ये गात मिटटी में मिल जाएगी ---------------------------------निर्विकार --------- ( ऋतु दुबे )इरा पाण्डेय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें