शनिवार, 30 जुलाई 2011
व्यथित मन ,
व्यथित है मन ,
भटकता भावों की इन गलियन से उन गलियन
कभी लौटता उस बिंदु में
भावों की नदियों में बांध बांधता
फिर उफान मारता
अचानक हिलोरे लेता
बहा ले जाता सब कुछ
फिर वही व्यथित मन
व्यथित ही रह जाता
जैसे भवर में फंसी पोत ..ऋतु दुबे
क्यों तुम मेरे अस्तिव में छाये हुए हो
क्यों ह्रदये को भरमाये हुए हो
मेहमा बन के बादल की तरह छाये हुए हो तुम एक बार बरस के चल दोगे अपनी राह मै फिर रह जाऊगी अधूरी प्यासी सी
मै पुराने बरगद की पुरानी सखा सी
तुम नयी बहार के नए गुल हो
कल अखरेगी पुरानी शाख तुम्हे
कल फिर तुम आकर्षित होगे नए फूलो पर
क्यों तुम मेरी उपासना भंग करने पर अमादा...
क्यों ह्रदये को भरमाये हुए हो
मेहमा बन के बादल की तरह छाये हुए हो तुम एक बार बरस के चल दोगे अपनी राह मै फिर रह जाऊगी अधूरी प्यासी सी
मै पुराने बरगद की पुरानी सखा सी
तुम नयी बहार के नए गुल हो
कल अखरेगी पुरानी शाख तुम्हे
कल फिर तुम आकर्षित होगे नए फूलो पर
क्यों तुम मेरी उपासना भंग करने पर अमादा...
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