शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

       
               
        
                 उन के  प्यार  के   विश्वास  में  हम  उन की दुनिया में अपना पग  बढ़  लिए  
                 इतने  डूबे  हुवे  थे  पग  के नीचे  बिछे  काँटों  पर  नजर  पड़ी  ही नहीं  . ऋतु

चाँद का दाग

     
  चाँद  भी  आज  कुछ  घबराया  हुआ है ,अपनी  सुन्दरता  को  निहार शरमाया  हुआ   है 
       बरसे  गा   आज  उस का  नूर  धरा  में  अमृत  बना के ये  जान  खुद  बा खुद  इतराया  हुआ  है
        बिखरी  है  रश्मियाँ   जल  थल  में  कही  रुपहली  कही  सुनहली  अधेरो  को डराया  हुआ  है 
       मुखरित  हो कर  भी मौन  हो  तुम  अपनी  बहो  में जो   समेट   नहीं  पा  रहे  धरा  को 
        मेरे  मन  में भी एक  प्रश्न    उपज  रहा  आज  शरद  के   चाँद  के नूर  को देखा  कर  
        क्यू  नहीं  छिपता  है तेरा  दाग  इस  नूर  की   चमक  के  सामने   तू ही बता  दे आज मुझे 
      इस  प्रश्न  के  उत्तर  में  यु  ही न मेरा  जीवन   गुजर  जाये  तेरे  दर्द  में छिपा  है  मेरा  दर्द  भी 
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