विचारो के सागर में गोता लगा रही थी
एक एक मोती चिंता के चुन रही थी
न छोर न किनारा था
मंजिल का न पता न ठिकाना था
लहरों के थपेड़े ,थे अनजानी डगर थी
समय पर की गयी गलतियों का
चल रहा मेरे संग करवा था .ऋतु
एक एक मोती चिंता के चुन रही थी
न छोर न किनारा था
मंजिल का न पता न ठिकाना था
लहरों के थपेड़े ,थे अनजानी डगर थी
समय पर की गयी गलतियों का
चल रहा मेरे संग करवा था .ऋतु
1 टिप्पणी:
बहुत सुंदर कविता है
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