मोम की तरह में पिघलती चली गयी ,मुझे पता भी न चला
क्या होगा हश्र मेरा ये सोचा न था में यु ही तेरी कशिश में
दिनरात भूल कर दीवानी सी बिखरती चली गयी
इस गलत फहमी में जी रही थी में सजा रही हु अपनी दुनिया
और में खुद तेरे घर की सजावट बन कर बैठक में सज गयी
तार -तार हो कर बिखरे थे मेरे सपने मेरे ही कदमो के नीचे
में उन को तेरे द्वारा मेरी राहो में बिछाए पुष्प समझ
अपने कदमो को जख्मी करती मुस्कुराती चली गयी
अब भी मेरा विश्वाश अडिग है तुझ पर तेरे दिए काँटों
को में दमन में सितार समझ सजाती चली गयी
वो भी समय आएगा जो जख्मो को भर देगा खुशियों से
यहाँ सोच दुखो को ह्रदय की गहराईयों में डुबोती चली गयी
मोम की तरह पिघलती ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,ऋतु इरा दुबे ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
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