मिटटी नहीं नारी हूँ
जिस सांचे में ढालो के ढल जाउगी
मुझे प्यार और सम्मान की खाद चाहिए
में पौधे से दरख्त बन जाउगी
मुझे दोगे स्नेह असीम तुम
में अबला से शक्ति बन जाउगी
में पहाड़ी नदिया सी
विकट परिस्थितियों में भी
नयी राह बनाऊगी
में कोमलागी हूँ कहने को
श्रम के कठोर भट्टे में तप
कुंदन सी निखर जाउगी
मिटटी नहीं नारी हूँ
ऋतु दुबे
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर इरा..........
kya bat hai..mitti se bani jarur par abla nahi sabla hun mai....han ji han mai nari hun....behatrin...
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