पगली हवा न जाने किस को खोजती है उड़ाते उड़ाते
प्यार से, तो कभी झझकोर के हिल देती है प्रकृति का वजूद
सखा से जुदा पत्तो को उस के जमी से कोसो दूर कर देती
कभी शीतल बन सकूँ देती अंतर मन तक
तो कभी गरम हो अपना गुस्सा उड़ेल देती
कभी पुरवाई बन कवि के ह्रदय को मोह लेती
लू के थपेड़े बन पिछला देती पाषाण को
न जाने मेरे मन क्यू इस पागल हवा सा क्या खोजते फिरता है
सब कुछ है फिर भी कुछ पाना चाहता है
कभी तेज़ हवा के झोके सा कुछ पाने की चाह में
जो है उस को भी उजड़ा डालता है
पागल हवा ………………………………………
ऋतु दुबे १३ /०४ /२०१४
1 टिप्पणी:
wah...kya shabd...kya bhav...umda..
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