ये कविता उन नवविवाहिता विधवा के लिए समर्पित है जी के पति नक्लासियो द्वारा बारूद से शहीद हुवे
वो दूर खड़ी कुछ सोच रही
काया कृष नयनो मैं न उम्मीदी के दीप लिए
वो लिपटी सुहाग प्रतिको से सामने उस के चिरनिद्र मैं सोयी जिन्दगी
वो नवविवाहिता विधवा वैधव लिए
वो प्रेम की हो गयी सुखी नदी सी
कामदेव की ज्वाला मे जल कुंदन सी
वो रिश्तो मे कैद बाँध मे बढ़ी सरिता सी
पत्थर सा जीवन खुद के लिए उस का
मेहंदी न छूटी हाथो की
खुशिया न महकी प्रिय के सांसो की
न तैर पाई प्रिय प्रेम पगी नदी मे न आंकठ डूब पाई प्रेम कुंद मे जल रही अग्नी कुड मे निरंतर
प्रिय की चिता निहारती सुनी आँखों से अलपक
आशावो का अंकुर पल रहा कोख मे फेरती स्नेहिल हाथ उस पर निरंतर
वो दूर खड़ी ...............................ऋतु इरा दुबे (१/७/११)
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