शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

उन की  निगाहो  से छलकता  है   प्यार का पैमाना मेरे लिए 
लबो पर होती है तब्बसुम मेरे लिए 
नहीं  है तो अल्फ़ाज़  उन के पास
इज़हारे  मोहब्ब्त   करने को
पर हर बार सुनाने को बेताब रहते है वो
मुझे से ही  इजहार  मोहब्बत  सुनने  को। ऋतु दुबे

शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

कुछ पगड़डिया  किसी के साथ चलते चलते कब  निकल गयी पता न चला 
मंजिल  तक कदम  पहुँचते  पहुँचते  कब रुक गए पता न चला 
अब भी महक आती है उन हाथो की मेरे हाथ में 
वो हाथ मेरे हाथो से कब फिसल गए पता न चला। ऋतु दुबे

गुरुवार, 24 जुलाई 2014

नारी का संघर्ष

अभावो  में जी रही  ,भावो  से भरी हुई  हूं
नारी  हु देवी स्वरूपा  पूज्य हु  पर कोख  में मरी जा रही हु
सुबह  मेरा नमन  करता  वो  शाम   हवसी  दरिंदा  बन  जाता
 कोमल कहता    मुझे  ,शक्ति मान  पूजा  भी  करता 
 क्या  समझू   इसे  मैं,  अपना मान  या  सृष्टि    का  अपमान
  छल  से अपनों  के दवारा  छलि  जा  रही  हु मैं
माँ ,पत्नी ,बहन  ,बेटी  हु मैं  फिर भी  अपने   अस्तित्व के लिए
दिन  क्या  और  रात क्या  जन्म  से  खुद  की तलाश   मैं
इस  संसार  में   नित   नए नए  संघर्ष  करती  जा  रही हु    मैं
मुझे संस्कृति  का  बाना  पहना,  वो समाज का ठेकेदार बना
उस बाने  का तार तार  करता ,उन तारो को  सहेज  जा  रही हु  मै
न दे मुझे देवी  का सम्मान ,मुझे  सृष्टि   का एक  अंश  मान ले
मुझे जीवन चक्र  का सहज  ही एक पहिया  मान ले
जिस में एक छोर  एक में  मैं  हु दोनों मिल के एक है
नारी  का संघर्ष
      ........................................... अभावो  में जी रही  ,भावो  से भरी हुई  हूं
…………………………………………ऋतु  दुबे




रविवार, 15 जून 2014

हद  होता  अगर  में  तुम्हे  पल भर  के लिए भूल जाती
फिर किस हद की बात करते हो तुम में हु  तुम्हे  याद दिलने की। ऋतु  दुबे

रविवार, 13 अप्रैल 2014

हवा मेरे हृदय सी

  

                                 

                      पगली हवा  न जाने किस को खोजती है उड़ाते उड़ाते 
                       प्यार से, तो कभी झझकोर  के हिल देती है प्रकृति का वजूद 
                        सखा से जुदा  पत्तो  को उस के जमी से कोसो दूर कर देती 
                        कभी शीतल बन सकूँ देती अंतर मन तक 
                        तो कभी गरम हो अपना गुस्सा  उड़ेल देती 
                        कभी पुरवाई  बन कवि के ह्रदय को मोह लेती 
                       लू के थपेड़े बन पिछला देती पाषाण  को 
                       न जाने मेरे मन क्यू इस पागल हवा सा क्या खोजते फिरता है 
                      सब कुछ है फिर भी कुछ पाना चाहता है 
                       कभी  तेज़ हवा के झोके सा कुछ पाने की चाह में 
                        जो है उस को   भी उजड़ा डालता है 
                                                     पागल हवा ………………………………………
                                                        ऋतु दुबे १३ /०४ /२०१४

                       

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

मेरे दिल से निकली आवाज जो शब्दों में ढल गए



              दिल की  धड़कने  भी अब थमने पर  आमदा   है
               कैसे उन को अनुमति दे दू  जब अमानत ये तेरी है। ऋतु  दुबे १२/४ /२०१४
             
              मन की गहराईयो  से सदा ये दुआ  निकलती है तेरे लिए
              पत्थर की ठोकर जो लगे तेरे पावो में तो गुलाब सी सहलाये। ऋतु दुबे

                 मेरा दर्द मेरे चेहरे में नजर आता है हर अपने को
                 एक तू ही सबसे अपना हो कर इस से अनजान बनता है। ऋतु दुबे

             
          

सोमवार, 7 अप्रैल 2014

       तेरे  लबो में मेरा नाम आते आते रुक ही जाता है 
        तू बचाना चाहता है मेरी निगाहो से हर पल 
        पर जाने क्यू  तेरे कदम मेरे दहलीज में ठिठक ही जाते  है 
         उठती है निगाहे कुछ खोजती हुयी न चाहते हुए भी तुझे से क़यामत हो ही जाती है। ऋतु दुबे (स्व रचित )

      

     जाने क्या  सोच के तेरे दीदार करने  तेरी दहलीज पर आखे गड़ ही जाती
      तू  बेखबर पिछले  दरवाजे से अपने सफ़र पर निकल  जाते हो। ऋतु  दुबे